लगता है कलयुग की भी पराकाष्ठा आई है
पहले का रावण धर्मी था,
और दूर कहीं एक लंका थी
अब छोटी छोटी धर्मी लंकाओं में,
कितने ही रावण बैठे है।
मन में कालिख भरे हुए
कुछ सड़को, गलियों में घूम रहे,
और संतो का वेश धरे,
कुछ, महलों में आसीन हुए।
अब तो संशय है
क्या रावण को मार सका था कोई,
क्योंकि प्रभु तेरे उस युद्ध बाद भी
कितनी सीतायें रोईं।
गर धर्म युद्ध था वो,
तो वो खत्म नही हो पाया है।
रावण तो अभी भी जिंदा है,
फिर हमने किसे जलाया है?
और क्यों हम जश्न मनाते है,
झूंठा अभिमान बचाते है,
अपनी कायरता छिपाने को
एक पुतला हर वर्ष जलाते हैं।